भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उधर बुलंदी पे उड़ता हुआ धुआँ देखा / डी .एम. मिश्र
Kavita Kosh से
उधर बुलंदी पे उड़ता हुआ धुआं देखा
इधर ग़रीब का जलता हुआ मकां देखा
किसी अमीर ने दिल तोड़ दिया था मेरा
मुद्दतों मैंने उसी चोट का निशां देखा
अजीब हादसे भी ज़िंदगी में होते हैं
कभी तो दुश्मनों में अपना मेहरबां देखा
वहम ये मिट गया मेरा कि सर पे छत ही नहीं
नज़र उठा के ज्यों ही मैंने आसमां देखा
बहुत तलाश किया हर जगह ढूंढ़ा उसको
मुझको ये याद नहीं कब उसे कहां देखा
ऐसे हालात पे रोना भी खूब आया मुझे
जब फटेहाल कभी अपना गिरेबां देखा
हमें तो मुश्किलों के बाद मुस्कराना है
हसीन फूल को कांटों के दरमियां देखा