भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उधार का प्रेम / विमल कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अगर तुम नहीं चाहती हो
मुझसे करना प्रेम
तो मत करो
स्वतन्त्र हो तुम
जिस तरह स्वतन्त्र है यह आसमान
और यह चिड़िया उड़ने के लिए
कोई उसे बाध्य नहीं कर सकता, बिगाड़ नहीं सकता उसका
और मैं तो तुम्हारा शुक्रगुज़ार ही रहा हूँ
ज़िन्दगी भर, शुभचिन्तक भी
पर एक बात चाहूँगा मैं
तुमसे पूछना
क्या तुम दोगी उधार में
अपना प्रेम
मैं लौटा दूँगा उसे एक दिन
पूरे ब्याज सहित
बहुत दरकार है मुझे उसकी
फ़िलहाल
मैं यह भी नहीं चाहता
कि तुम अपनी इच्छाओं के विरुद्ध
करो मुझसे प्रेम
अपने सपनों, उम्मीदों और कामनाओं के विरुद्ध
विरुद्ध अपनी प्रकृति के
नहीं करना प्रेम, स्वयं का संहार करके तो बिलकुल नहीं
ख़ुद का तिरस्कार करके भी नहीं
मैं तो सिर्फ़ कुछ दिन के लिए
माँग रहा हूँ तुमसे
उधार में यह प्रेम
जब तक यहाँ अन्धकार है
तब तक के लिए
जब तक यह शोर है
तब तक के लिए
जब तक यह उथल-पुथल सिन्धु में तब तक के लिए
वह रहेगा मेरे पास
बहुत सुरक्षित, सौ प्रतिशत
चिन्ता न करो, हरगिज़
बहुत सहेज कर रखूँगा उसे मैं
किसी के आभूषणों
तथा अमानत से भी ज़्यादा सुरक्षित
मैं लौटा दूँगा उसी ही हालत में
अपनी मृत्यु से ठीक पहले
चिता पर जाने से पहले तो ज़रूर ही
बहुत लोगों की बहुत सारी चीज़ें लौटानी हैं मुझे
मेरा रोम-रोम ऋणी है
मैं कर्ज़दार हूँ
कि जब तुम मुझसे प्रेम नहीं करती थी
तब भी तुम मुझसे मिलने आई
ट्रैफिक जाम में फँसकर
मैं यह हरगिज़ नहीं कहूँगा
कोई स्वार्थ था छिपा तुम्हारा
और था अगर
तो क्या नहीं था मेरा भी
तसल्ली पाने का ही स्वार्थ !
इसलिए मैं कहता हूँ
तुम थोड़े दिनों के लिए
उधार में दे दो अपना प्रेम
और फिर देखो किस तरह फूल खिलते हैं
किस तरह पत्ते हरे हो जाते हैं, धमनियों में
किस तरह रक्त बहता है, ख़्वाब किस तरह आते हैं
यह पूरी ज़िन्दगी उधार की है दी हुई
मेरी माँ और मेरे बाप ने मुझे
जीवन दिया, वह भी तो उधार ही था मेरे लिए
मैं उनका कर्ज़ उतार नहीं सका
और वे मृत्यु-लोक में चले गए
जिसने मुझे भाषा दी
उसका भी मैं कर्ज़दार हूँ
लेकिन मैं तुम्हारा कर्ज़ चुकता कर जाऊँगा
हर हालत में भले ही भिखारी बन जाऊँ
किसी का उधार मैं रखता नहीं
लेकिन उसके बदले में
मैं गिरवी रखता हूँ
अपनी ईमानदारी
अपनी निष्ठा
रखता हूँ अपनी आँखों को
अपने सपनों को
तुम्हारे पास गिरवी
जिसमें से कभी-कभी
दो बूँद आँसू निकल आते हैं
तुम्हें रास्ते में याद करते हुए
पता नहीं, तूफ़ान में तुम कैसे होगी फँसी
कैसे होगी तुम इतनी तेज़, मूसलाधार बारिश में
और इतनी चिलचिलाती गर्मी में...
तुम्हारी नाव कहाँ है ?
कहाँ तुम्हारा टूटा हुआ छाता ?
तुम्हारे जीवन का
एक बार फिर
मैं ख़ुद को
अपनी आत्मा को
अपनी त्वचा को
गिरवी रखता हूँ
तुम्हारे पास
पाने के लिए
थोड़ा-सा
तुमसे
तुम्हारा उधार का यह प्रेम !
जिसे मैं लौटा दूँगा बिना शर्त
अविलम्ब
एक दिन....।