उनकी यादें / तरुण भटनागर
उनकी यादें,
टूटते तारे की तरह आती हैं,
जिसे देखकर,
मैं कुछ मांगता हंू,
सुना है,
यंू मांगने से बात पूरी होती है।
उनकी यादें,
दबे पांव आती हैं,
मैं सोच भी नहीं पाता हंू,
अरे अभी!
अरे इस जगह!
उनकी यादों की आग,
भीतर की,
गीली, फफंूद लगी लकिड़यों को,
चिटिचटाती है,
धुंआ करती है।
उनकी यादों के,
कुछ मायने हैं,
कुछ छिछले मायने,
जो नदी से बाहर निकल आये,
लिजबिजे द्वीपों की तरह हैं।
वे यादें,
खूली हवा में,
फरफराती नहीं हैं,
बल्िक बारिश से भीगकर,
डण्डे पर चिपके झण्डे की तरह हैं।
उनकी यादों के शब्द,
उनकी यादों के नहीं हैं,
बल्िक वे शब्द मैंने गढ़े हैं,
अपनी वणर्माला से।
उन्हें शायद पता भी नहीं हो,
उन शब्दों का अथर्,
अथर् जो मैं जानता हंू,
अथर् जो वे नहीं जानती हैं।
नहीं जानती हैं,
खुद अपनी ही बात का अथर्।
उनकी यादें,
सड़कों की तरह हैं।
एक जगह से दूसरी,
फिर तीसरी, चौथी, पांचवीं, ़ ़ ़
चौराहों, साइनबोडोर्ं, मील के पत्थरों ़ ़ ़
के साथ-साथ।
उनकी यादें,
मेरी छटपटाहट हैं।
पर हर बार,
मुझे हवा पानी मिल जाता है,
आैर यंू,
मैं मरने से बच जाता हंू।
उनकी यादों ने,
भाड़ में गमीर् का काम किया है,
बनाया है,
भीतर के बीजों को पापकानर्।
जिसे बेचा जा सकता है,
पर जो बिकता नहीं हैं,
अगर बिकता,
तो मैं अपने पुराने शरीर को दफनाकर,
फिर से जन्म ले चुका होता।
उनकी यादें,
सांप की तरह लपलपाती,
संूघती हैं,
मन के पेड़ पर लटके,
खाली घोंसले।
उनकी यादें,
मुझे ले जाती हैं,
अपनी घाटियों में।
जहां कुछ प्रतिध्वनियां हैं,
बहुत ऊंची आैर नीची जमीन है,
धूप-छांव का खेल है।
उनकी यादों को,
मैं कह नहीं पाता हंू।
आजतक कई बर कहकर भी,
लगता है,
जैसे मैं हमेशा चुप ही रहा हंू।
बहुत मन करता है,
उनकी यादों को कहने का।