भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उनकी साँसें मुझमें चल रहीं / लाल्टू

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वे अनजान नहीं हैं उनकी साँसें मुझमें चल रहीं
घर बाज़ार धरती आसमान जहाँ भी
आखिरी क्षणों में याद किया अपने प्रियजनों को जिन्होंने
वे यहाँ हैं बैठे इस स्टूल पर
लैपटॉप पर की दबा रहे यूनीकोड इनपुट

लेख जो संपादकीय के साथ के कालम में है
पढ़ रहा हूँ उम्र के बोझ में
अर्थव्यवस्था राजनीति जंग लड़ाई के बीच साँईनाथ हूँ मैं
विदर्भ का मर रहा किसान हूँ
ईराकी फिलस्तीनी हूँ
मर्द हूँ औरत हूँ
न आए अख़बार की हर ख़बर हूँ मैं।