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उनके हर फ़रमान के दस्तूर होने तक / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'

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उनके हर फरमान के दस्तूर होने तक।
मुन्तजिर हूँ ज़ख़्म के नासूर होने तक।

इक चिता रह-रह जली है शह पर आँधी की,
जिस्मे-फानी आग से काफूर होने तक।

उठ नहीं सजदे से पाता है ये सर अपना,
उनके हक़ में भी दुआ मंजू़र होने तक।

इश्क की मय का न छूटा जाम होंठों से,
रफ्ता-रफ्ता रूह के मख्मूर होने तक।

जारी रखना जंग ये बेहद ज़रूरी है,
दुश्मनों की तेग के बेनूर होने तक।

ऐ ख़ुदा आँखें मेरी दोनों खुली रखना,
उनके जल्वों से मेरा दिल तूर होने तक।

मुतमइन होता रहा मैं उनके वादों से,
दोस्तों ‘विश्वास’ चकनाचूर होने तक।