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उनतीस / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

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गेहूँअन जो सामने था, उसको कत्तल कर दिया
आंगन में छिपे ढोढ़ से मैं लड़ नहीं सका
आँसू का कतरा-कतरा झड़-झड़ के क्या कहा
कोशिश की बहुत पर मैं पढ़ नहीं सका
अनगढ़ को बार-बार मैं गढ़ता ही रह गया
चाहा था जैसा रूप! वैसा गढ़ नहीं सका
जिसको दिया था अमृत, उसने जहर दिया
पिया तो जाम भर-भर पर मैं मर नहीं सका