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उन्नीसवां अध्याय - 1 / प्रवीन अग्रहरि
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जीवन श्रेष्ठ है
है नहीं... था
जीवन श्रेष्ठ था
अब यह सामाजिक दलदल में है
बिलबिला रहा है
छटपटा रहा है
अब जीवन का मूल्य निर्धारित है।
मैं, तुम्हारा प्रतिबिम्ब हूँ
निहार रहा हूँ जीवन को
लगा लेना चाहता हूँ उसको गले
दे देना चाहता हूँ उसको सम्मान
किन्तु, संक्रामक है गले लगना-लगाना
प्रतिबिम्ब सड़ चुका है
आत्मा जल चुकी है
और उसकी आंच से तप गयी है सृष्टि।
हर तरफ सन्नाटे का शोर है
एक ख़ामोशी है
दिल दहला देने वाली
जो सूचक है इस बात का
कि आने वाला है गहरा तूफ़ान
भस्म होने वाली है सभ्यता
फिर से एक कृष्ण आएँगे
आएँगे ज़रूर
और आहुति देंगे
उन्नीसवां अध्याय पढ़कर
मेरी, तुम्हारी, हम सब की...
अब मृत्यु का आलिंगन अनिवार्य है।