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उन्मत्त / अज्ञेय
Kavita Kosh से
सूँघ ली है साँस भर-भर
गन्ध मैं ने इस निरन्तर
खुले जाते क्षितिज के उल्लास की,
खा गया हूँ नदी-तट की
लहराती बिछलन जिसे सौ बार
धो-धो कर गयी है अंजली वातास की,
पी गया हूँ अधिक कुछ मैं
स्निग्ध सहलाती हुई-सी
धूप यह हेमन्त की,
आज मुझ को चढ़ गयी है
यह अथाह अकूल अपलक
नीलिमा आकाश की।
मत छुओ, रोको, पुकारो मत मुझे,
जहाँ मैं हूँ वहाँ से मत उतारो-मुझे कुछ मत कहो।
-मगर हाँ, काँपे अगर डग तो
तुम्हीं, ओ तुम, तुम्हीं-तुम रहो,
जो हाथ मेरा गहो।
इलाहाबाद (गंगा की रेती पर), 20 दिसम्बर, 1958