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उन्माद / मधुप मोहता

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जब किसी ख़ामोशी में, लहू जैसे ठहर सा जाता है,
शहर, ख़ुद पर यकीन करने का
भरम कर लेता है।

आदमी, सिमट जाते हैं,
इतिहास के पन्नों में।
औरतें, तपी धूप में,
अपने होने का
सपना देखती रहती हैं।

मैं बैठा, सोचता रहता हूं
अनगिनत बातें,
चलती रहती है दुनिया, अपने
नपे-तुले रास्तों पर।

पंचांग पड़े रहते हैं, बेकार
मेज़ पर
अपने पन्ने पलटते हैं।
बरसात में
धूप-घड़ी
गिनती है पल-छिन
बेमतलब।

और समय सिमटता रहता है,
स्मृति की दर्दभरी
सतहों में।