उन्माद / सुरेन्द्र रघुवंशी

सफलता का नशा था या सत्ता का उन्माद अथवा धन वैभव का अहंकार
कि वह आदमी से सीधे पाग़ल हाथी में तब्दील हो चुका था

उसकी ताक़त की गर्म लू से जल रहीं थीं बस्तियाँ
कौन और कितने जन
भीमकाय पैर के नीचे कुचल दिए गए
उसका कोई ब्यौरा उपलब्ध नहीं

भगदड़ ही मच गई जहाँ से गुज़र गया वह
अपनी मदमस्त चाल में आँखें बन्द करके

नाक को लम्बी सूँड में बदल लिया
और उसे जोड़ दिया प्रतिष्ठा के प्रत्येक प्रश्न से

उन्मादी हाथी ने अपने झुण्ड के साथ
उखाड़ डाले हरे-भरे पेड़ और खींचकर डाल दिए रास्तों और बस्तियों के बीच
इस तरह वे विभाजन के पैरोकार भी बने
स्वार्थ की चिंघाड़ से मचाते हुए शोर

जन यक्ष-प्रश्न रह गए अनुत्तरित
अहं की तुष्टि और मिथ्या प्रतिष्ठा के प्रश्न
बन रहे हैं युद्ध के कारण भी ।

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