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उन्मेष / महेन्द्र भटनागर

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आज मन बेचैन है !
वह कौन है
जो कर रहा अविराम आकर्षित,
अधिक चंचल
कि मारुत भी पिछड़ता जा रहा है ?
कौन-से विश्वास की ज्वाला समायी है
कि जिससे हर पिरामिड-भाव अंतर के
पिघलते जा रहे हैं ?
कि जिसके हेतु तूने
प्राण की सब शक्ति
सब पुरुषार्थ
निर्भय रख दिया है दाँव पर !

अंतर, भुजा का बल,
शिराओं का धधकता रक्त निर्मल
आज आँधी बन
विफलता के सभी बादल
गगन से दूर अविरल कर
सुनहली नव-किरण
लाना यहाँ पर चाहता है !
कौन-सा ज्योतित सबेरा
आज आशा की लकीरें
मन-पटल पर कर रहा अंकित ?
नवल-निर्माण के हित
दे रहा जो प्रेरणा ?
यह राह —
जिस पर दृष्टि केन्द्रित;

है बड़ी, फैली हुई मरुथल सहारा-सी,
कि जिस पर हैं
कहीं टीले गरम जलहीन रेतीले,
कहीं फैले हुए मैदान
मृग-मन को भ्रमित करते हुए।
जिन पर दिखाई दे रहे हैं
हड्डियों के ढेर
गीले शव
कि जिनकी जीभ बाहर होंठ को छू
चाटती ही रह गयी है !
पर, बोल तो मन —
कौन-सा है स्वप्न ऐसा
जो जगत में कर रहे साकार ?
जिसके हित नहीं रे
आज तक स्वीकार
असफलता, निराशा-भार !
1949