भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उन्हें देखा गया खिलते कमल तक / जहीर कुरैशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उन्हें देखा गया खिलते कमल तक,
कोई झाँका नहीं झीलों के तल तक।

तो परसों, फिर न उसकी राह तकना,
जो भूला आज का, लौटा न कल तक।

न जाने, कब समन्दर आ गए हैं,
हमारी अश्रु-धाराओं के जल तक।

सियासत में उन्हीं की पूछ है अब,
नहीं सीमित रहे जो एक दल तक।

यही तो टीस है मन में लता के,
हुई पुष्पित, मगर, पहुँची न फल तक।
हजारों कलयुगी शंकर हैं ऐसे-
पचाना जानते हैं जो गरल तक।

जो बारम्बार विश्लेषण करेगा,
पहुँच ही जाएगा वो ठोस हल तक।