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उन आँखों की ख़ामोशी / अशोक कुमार पाण्डेय

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पंखुड़ियाँ नोच कर गुलाब को कली में बदलती उस लड़की की आँखों में
कोई कली नहीं थी
नुची हुई पंखुड़ियों की ख़ामोशी थी

मई की दुपहर लुटियन की दिल्ली लुटती हुई लूटती हुई
जाने किस दरवेश के लगाए पेड़ जिनकी छाया में राहत जिनकी हवा में खुशबू
जिनके होने में एहसास कुछ बचे होने का
हर मकान के आगे नाम से बड़ा ओहदा देखकर लगता है
पेड़ पर नाम लिखा होता तो पेड़ पेड़ नहीं होता
कोई चहारदीवारी होती तो नुची हुई पंखुड़ियों सा उदास होता पेड़
दीवारों से ऊपर उठ जाएँ पर दीवारें लांघ नहीं पाते पेड़
वह लड़की न ऊपर उठ सकती है न लांघ सकती है...

उसकी छाया में पलते हैं कुछ पेट
उसकी छाया में थोड़ी सी आग जलती है रोज़
उसकी छाया नुची हुई पंखुड़ियों जितनी है जिसमें मुरझाये गुलाब सुस्ताते हैं कुछ

हाथ भर की दूरी पर है उससे संसद
उसे लाँघना उसके बस की बात नहीं
बित्ता भर की दूरी पर महामहिम हैं
वह कभी न चल पाएगी बित्ता भर

उसे प्रेम का नहीं प्रेमियों का इंतज़ार है जिनके लिए उसने नोची हैं दिन भर पंखुड़ियाँ
जिनके लिए बचे हुए फूल को पन्नी में क़ैद किया है ओस जैसी बूंदों से सींचा है
जिनके लिए वह बैठी है इंडिया गेट के सामने ढलती धूप में धूल का काजल लगाए

तुम जब यह कली लिए हाथों में देखोगी मुझे मुग्ध निगाहों से
मैं उन नुची हुई पत्तियों को बटोर लूँगा अपने लिए