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उन खाली दिनों के नाम / विपिन चौधरी

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जब जीवन की धीमी रफ़्तार भी पकड़ में नहीं आ सकी थी
नामालूम-सी गतिविधियाँ
बेबस परेशानियाँ ख़ुद हलकान थी
मन के घुड़सवारों को ठीक से दाना-पानी नहीं मिला था
उन्हीं मन्द दिनों ने बैरागी बनने की प्रबल इच्छा जगा दी थी
उदास दिनों में मन ख़ुद-ब-ख़ुद हिमालय का मानचित्र तैयार करने लगा था

बेरौनक और साफ़ अहाते में बिना दुशाले के निकल आते थे उन दिनों हम
पिता के संरक्षण और माँ की ममता से महरूम
वे दिन अपने हाल पर जीने के अनाथ दिन थे
प्रेम की नरमाई और असमंजस से परे
बिखरे, छितरे दूर तक पसरे हुए दिन
औने-पौने दिनों की फफून्दी से कही दूर
हर रोज़ की गुत्थम-गुत्था की उधेड़बुन से अलग
साफ़ सुथरे, सुलझे
अलगनी पर टँगे कपड़ो जैसे दिन फैले हुए दिन

उस दिनों के सिरे पर टँगी रातो को सपने भी राह भूल गए थे
तभी दुनिया और सपनो का साँझी रणनीति का पता चला
दुनियादारी की तरफ पीठ मोड़ कर बैठे थे हम उन दिनों
और सपनो और दुनियादारी का कोई गुप्त समझौता था

हर दस्तक को अनसुना कर एकान्त हठयोगी से दिन
चिन्ताओं का पिण्डदान कर दिया था तब हमने
मेज़पोश-सी सीधी बिछी हुई प्रतीक्षा से
समुचित दूरी बना कर
उन दिनों हमने ढलती गुलाबी शाम को भरपेट पिया
सफ़ेद चादर के चारों कोनों को मजबूती से गाँठ बाँध कर सोए

पाषाण युग की निर्ममता पर निशाना साध कर
उन दिनों हम अपने पालतू सपनों को एक-एक कर उड़ा देना चाहते थे
यह भी देखना चाहते थे कि उन सपनों को कितना बड़ा आस्माँ मिलता है
बरसों ख़ून टपकता आया था इन सपनों का हमारी रूह के आँगन मे
और इनके फलित न होने का मलाल, मलाल बन कर ही रह गया था
फिर भी ये सपने जाते-जाते अपने पद-चिन्ह छोड गए थे

जब कुछ चुनने की बारी आई तो
कतारबद्ध दिनों की कभी न छोटी पड़ने वाली शृंखला मे
हमने उन्ही बेजोड दिनों को चुना
अब तक जिनका एक टुकड़ा भी हमने नहीं चबाया था
सर पर गमछा बाँधे वे दिन
गिलहरी की चपलता को देखते-देखते ही गुज़र जाते और
फिर भी दिन के किसी पहर को खोने का भी मलाल नहीं होता

गैस की गन्ध धमनियों मे उतरती रहती और हम निश्चित
और कोई दिन होते तो मारे डर के हमारी गठरी बँध गई होती
पर ये नायब दिन थे
हम उन दिनों के नज़दीक जा बैठने का सुख भी अनचखा और सौंधा था
जब कभी दिनों के दर्ज करने की कवायद होगी तो
हमारे खाते मे वे दिन ही शोर मचाएँगे