भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उन पाप के नोटों का क्या होगा? / कविता भट्ट
Kavita Kosh से
प्रस्तर खंडों से टकराती,
चल रही मेरी व्याकुल धारा।
हिमाला से विदा हो रही,
सागर ही मेरा प्रेमी प्यारा।
असंख्य कामनाएँ मिलन की
तन पर अपने शृंगार लिये।
सोचा- स्नेहमय ससुराल होगा, किंतु
तुमने मायके में भी व्यभिचार किये।
मुझे कैद कर डाला तुमने,
रेत सीमेंट की दीवारों में।
अपनी सुख-सुविधा के लिए
अपने फैलते अन्धे व्यापारों में।
मूक कहानी सुना रही हूँ,
मीलों चलकर ये क्या पाया?
धाराओं में झनझना रही हूँ।
काली कर दी चम्पयी काया।
स्वच्छ धवल नीर बहाया था,
स्तब्ध खड़ा- पर्वत मेरा पिता लाचार।
फूट-फूट रोता और अश्रु बहाता,
देख अपनी बेटी का हाय! तिरस्कार।
कहने को कुम्भ नहाते हो,
अगणित मुझमें पाप बहाते हो।
उन पाप के नोटों का क्या होगा?
जो तकियों में छिपाये जाते हो।