उन से ताज़ा शेर होंगे नित नए मज़मून के
बच रहे है जिस्म में जो चंद क़तरे खून के
उस कि गली में तो पोरवाई थिरकती है सदा
इस तरफ आते नहीं वहशी बगुले जून के
लखनवूई तहज़ीब से बच्चों को रक़ब्ट ही नहीं
तरबियत पाते हैं स्कूलों में देहरादून के
मुफलिसी में दोस्त हम से होगे हैं यूं जुड़ा
लोग जैसे भागते हैं खौफ से ताऊन के
भीड़ चाल अछि भी लगती है जो मौसम सर्द हो
देखिये सब ने पहन रखे हैं कपरे ऊन के