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उपदेशक दौड़ - विराट पर्व / गन्धर्व कवि प. नन्दलाल

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डटै ना श्रृंगाल जहाँ, केसरी की छांड देखो,
रामायण चतुर्थ विश्राम, तृतीय काण्ड देखो,
इनसे बैर अच्छा नहीँ, कवि, पण्डित, भांड देखो,

हमसाया, हकीम नृप, जिसपै हो हथियार देखो,
आठवां हो मूर्ख नर, नोमा साहूकार देखो,
इनके साथ बैर लावै, पड़ै नहीं पार देखो,

कवि और पण्डित से बैर, लाकै पछताना पड़ै,
बिना भूख ज्यादा भोजन, खाकै पछताना पड़ै,
बिना बुलाये गैर के घर, जाकै पछताना पड़ै,

भांड का भरोसा नहीं, पलट झट भेष जा,
हो जावै बीमार जब, वैद्य पा हमेश जा,
साहूकार साथ बैर लावै, नहीं पेश जा,

पड़ोसी से बैर बुरा, हर दम पास रहना होता,
सत्य पुरुषों का यही काम, सत्य वचन कहना होता,
कवि करैं कविताई भाई, कविता रूपी गहना होता,

है निति का लेख देख, वर से जोरू हिणी चाहिये,
गृहस्थी का है धर्म, कोई आज्या रोटी दीनी चाहिये,
मूर्ख सेती बैर बुरा, हार मान लीनी चाहिये,

कहै माल राजा से, ऐसा वचन सुनाया,
टाल करादे कुश्ती की, मैं छोखी भेंट भर पाया,
छटी का पीयोड़ा दूध, आज याद आया,
इतना लोग मनु जी नैं, मूर्ख हैं बताया,

अति लोभी मूर्ख होता, मनु का प्रमाण देखो,
मूर्ख कुशल चाहवै हो, कुभार्या से हाण देखो,
अनुचित कर्म करके, चाह्वै जो कल्याण देखो,

कृपण से याचना करै, दर्शावै जो दीनता,
अपनी महिमा आप गावै, पावै ना प्रवीणता,
अनुचित कर्म करके, चाह्वै जो कुलीनता,

वो भी मूर्ख निर्बल होके, ठाडे साथ बैर लावै,
केला आम काटके, घर के अन्दर कैर लावै,
तड़फता हो घा, उसके ऊपर जहर लावै,

अविश्वासीका विश्वास, मूर्ख नर करै देखो,
बदनामी का काम करता, मूर्ख नहीं डरै देखो,
मूर्ख अपने पैरों पर, आप मुठ्ठी भरै देखो,

सामर्थ स्त्री नै, मूर्ख छोडै पीहर में,
सुरमा स्याही घालै, चंचल वस्त्र ओढै पीहर में,
आण काण त्याग दे, पति सँग पोढै पीहर में,