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उपवन / तुम्हारे लिए, बस / मधुप मोहता

एक पन्ना और पलटता हूँ मैं
ज़िंदगी की किताब का।
एक और बसंत खिलता है मुझमें
झरता है अनगिनत छटाआंे,
आकार और रंगों में।
एक क़दम और रखता हूँ मैं
जीवन के उपवन में।
बारिश बूँद-बूँद
और दूब पर ठहरी ओस मुसकराती है,
जैसे बस वह मुसकरा सकती थी
अपनी परछाइयों के परे झाँकता हूँ मैं
परछाइयाँ, जो मन में छाई थीं।
हर फूल में, अनायास खिलता है,
एक सनातन आश्चर्य।
ख़ुशबुएँ गुनगुनाती हैं
चौपाइयाँ, सुख की, व्यथा की,
तन्हा रातों के अकेलेपन की,
नाज़ुक यादें
आँसुओं में पिघलती रहती हैं, और भय
जो मुझमें भरे थे, बिखर जाते हैं।
एक आसमान तलाशता हूँ मैं
उसे थामने के लिए।
नदी, पत्थर और
बरगद की टहनियाँ
फैली हुई तसवीरों में
अपने-अपने रंग ढँूढ़कर
सहम जाती हैं।
मेरी उँगलियाँ थिरकती हैं,
और समय की रेत पर
आँकता रहता हूँ मैं
अपनी तसवीर।