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उपहास / सूरदास
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तुम कुल बधू निलज जनि ह्वै हौ ।
यह करनी उनहीं कौं छाजै, उनकैं संग न जैहौ ॥
राध-कान्ह-कथा ब्रज-घर-घर, ऐसें जनि कहवैहौ ।
यह करनी उन नई चलाई, तुम जनि हमहिं हँसैहौ ॥
तुम हौ बड़े महर की बेटी, कुल जनि नाउँ धरैहौ ।
सूर स्याम राधा की महिमा, यहै जानि सरमैहौ ॥1॥
यह सुनि कै हँसि मौन रहीं री ।
ब्रज उपहास कान्ह-राधा कौ, यह महिमा जानी उनहीं री ॥
जैसी बुद्धि हृदय है इनकैं, तैसीयै मुख बात कही री ।
रबि कौ तेज उलूक न जानै, तरनि सदा पूरन नभहीं री ॥
विष कौ कीट बिरहिं रुचि मानै, कहा सुधा रसहीं री ।
सूरदास तिल-तेल-सवादी , स्वाद कहा जानै घृतहीं री ॥2॥