उपालम्ब / जीवनाथ झा 'विद्याभूषण'
जलनिधि! अहाँक वैचित्र्य केहन?
उद्दण्डताक उत्ताल तरल अप्रतिम-तरंगक रंग विषम,
सम्प्रति मर्यादा-तटक अन्त कय भीषणताक सदन अनुपम,
छी बनल अहाँ की कँपय भुवन?
चिरसँ अभेद्यजे वज्रहुसँ पर्वत छल तकरो तोड़िताड़ि,
भूमध्य लीन कय देल कियै शृंगावलिअहु केँ फोड़ि फाड़ि,
की दृश्य उपस्थित प्रलयक सन?
शतशत तरंगिणी अपन विभव अपहृत करइत अछि आबि आबि,
लहरिक कोलाहल ब्याज भरल स्तुति कर अहाँक गुण गाबि गाबि,
की ह्वैछ तदपि सन्तुष्ट न मन?
की धधकि उठल अछि एक बेर बाड़व दहनक ज्वाला कराल,
जे चतुर्दिक्षु उछलैछ युगल अवसान सदृश जीवन विशाल,
जहिसँ अछि क्षुब्ध भुवन एहिखन।
गंभीरताक भय एकमात्र भाजन सबसँ महान,
त्रिभुवन विश्रुत यश कलाप लय ई चंचलता नहि शोभमान
उपहास करय लखि सकल सुजन।
पीयूष, कलानिधि श्री प्रभृतिक हे अब्धि! अहाँ छी स्वयं जनक,
सम्पूर्ण व्याप्त कय भूतलकेँ गिरिवरकेँ ढाही हेतु धनक,
लोभक निदान थिक आगत धन।
अबइछ स्मृति-पथमे की अहाँक नहि पारावार! अगस्ति-कथा?
करइछ की हत्तन्त्री झंकृत नहि रहि रहि नीरसताक व्यथा?
अवलेप उचित की थीक एहन?
निर्जर दैतेयक मेल पाबि नवरत्न समासादन निमित्त,
की पुनः हैत नहि मन्थाचल मन्थनसँ कलुषित चपल चित्त
परिवर्त्तित युग दिशि खोलु नयन।
जलनिधि अहाँक वैचित्र्य केहन?