उपेक्षा / अमिताभ रंजन झा 'प्रवासी'
लोग पग-पग पर छले, 
नजर लगे जब-जब मिले, 
तिल-तिल कर सदा जले, 
बिन बात कालिख मले, 
दिल जब परेशान हो, होता नहीं कोई काम है। 
ज़माने के तानों का क्या, 
तीखे वाक्-वाणों का क्या, 
लोगों की बातों का क्या, 
श्वानों की बारातों का क्या? 
यही उनकी जात है, बस भौंकना ही काम है। 
सामने कहे बड़ा होनहार, 
पीठ पीछे सौ विकार, 
परवाह क्या उन असुरों की, 
दर्द देख कर दूसरों की, 
मुस्कुराना शौक़ है, टांग अड़ाना काम है? 
उपेक्षा से पूछते वो
क्या तुझमें है सिंग और पूंछ? 
विनम्रता रूपी दुम कही हिला लिया, 
दबंगता का सिंग कभी दिखा दिया, 
इनके सदुपयोग से, होता हरेक काम है। 
क्रोध आया उबल गया मैं, 
शांत हुआ संभल गया मैं, 
ठोकर से मैं गिरा, उठा, 
ऐसा ही है जग सदा, 
सब पर हँसना धर्म है, सब को डंसना काम है। 
ह्रदय फटा तो रो लिया, 
थक गया तो सो लिया, 
जागा जब फिर चल दिया, 
सुख भी ज़िया दुःख भी जिया
जिंदगी एक सफ़र, रुकने का न कोई काम है। 
अमानुषों के भीड़ में, 
कुछ भलेमानुस भी मिले, 
निःस्वार्थ हर मदद की, 
स्नेह दिया, साथ चले, 
स्मरण करूँ उन्हें सदा, ऋणी रहूँ ये काम है। 
मस्त सदा व्यस्त रहूँ, 
खुश रहूँ, हँसता रहूँ, 
कभी न मैं बुरा बनूँ, 
बुरे जो उन्हें क्षमा करुँ, 
पर नाम उनका याद रख, सावधान रहना काम है। 
मैं सोचता हूँ कहा से आया, 
किसने मुझ को बनाया? 
मंज़िल कहाँ, जाना कहाँ, 
कब तक हूँ, मैं कौन हूँ? 
क्या मेरा नाम है, क्या यहाँ मेरा काम है? 
दूर गगन से मैं आया, 
विधाता ने बनाया, 
जाऊँ जहाँ मंज़िल वहाँ, 
कुछ क्षण के जीवन पथ का पथिक मैं, 
चल मेरा नाम है, चलता रहूँ यही काम है।
	
	