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उफ़ुक़ अगरचे पिघलता दिखाई पड़ता है / जाँ निसार अख़्तर
Kavita Kosh से
उफ़ुक़ अगरचे पिघलता दिखाई पड़ता है
मुझे तो दूर सवेरा दिखाई पड़ता है
हमारे शहर में बे-चेहरा लोग बसते हैं
कभी-कभी कोई चेहरा दिखाई पड़ता है
चलो कि अपनी मोहब्बत सभी को बाँट आएँ
हर एक प्यार का भूखा दिखाई देता है
जो अपनी ज़ात से इक अंजुमन कहा जाए
वो शख्स तक मुझे तन्हा दिखाई पड़ता है
न कोई ख़्वाब न कोई ख़लिश न कोई ख़ुमार
ये आदमी तो अधूरा दिखाई पड़ता है
लचक रही है शुआओं की सीढियाँ पैहम
फ़लक से कोई उतरता दिखाई पड़ता है
चमकती रेत पर ये ग़ुस्ल-ए-आफ़ताब तेरा
बदन तमाम सुनहरा दिखाई पड़ता है
उफ़ुक़ = क्षितिज