उफ़... कितना अधूरा है यह शब्दकोष / अशोक कुमार पाण्डेय
उपमाएं कितनी धुंधली हो गयी हैं
कितने झूठे से लगते हैं सारे बिम्ब
पकती आँखों के धब्बेदार दृश्यों से टेढ़े मेढ़े आदर्श
जहाँ हथियारों से शान्ति की तलाश है
और प्रेम हत्या की सबसे जायज़ वज़ह है
मनुस्मृतियों की मुट्ठी में संविधान की तलवार कसमसाती है
और ठीक ऐसे वक़्त
अधजगी रातों के प्रत्यूष की ओस में डूबी रजनीगंधा महक उठती है
कोमल रिषभ और धैवत के साथ गूंजती है विभास सी एक आवाज़
स्वप्न सा एक दृश्य निकट.. बहुत निकट घटता है अघटित सा
और जीवन गीले बीज सा बिखर जाता है उम्र की खुरदुरी धरती पर
पवित्रताओं के अपवित्र संसार में
आस्थाओं की अनगिन अनास्थाओं के बीच नतशिर निःशब्द
बहुत धीमे क़दमों में चलता
पहुँच तो जाता है न एक भाव तुम तक?
चुनता हूँ एक उसके लिए एक शब्द : विश्वास
कितना अधूरा है यह शब्दकोष..
भाषाओँ के सीने पर कैसे पत्थर अटल
भावों के पांवों में कैसी बेड़ियाँ पायल सी कठोर
कितना क्रूर है यह संसार और कितना मधुर
घायल अंगुलियों से हटाता हूँ कुछ कांटें
और चुनता हूँ उसके लिए एक शब्द : उम्मीद
उफ़ .. कितना अधूरा है यह शब्दकोष
जब जब लिखना होता है प्रेम लिखा जाता है अपराध.
मैं तुम्हारा नाम लिखता हूँ और फिर छोड़ देता हूँ खाली स्थान.