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उफ़ ये कैसी कशिश ! बेबसी ? हाँ वही ! / गौतम राजरिशी

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उफ़ ये कैसी कशिश ! बेबसी ? हाँ वही !
बेख़ुदी ? बेक़सी ? हाँ वही ! हाँ वही !

करवटों ने सुनी फिर कहानी कोई
रतजगों से जो लिक्खी गई ? हाँ वही !

एक सिगरेट-सी दिल में सुलगी कसक
अधजली, अधबुझी, अधफुकी ? हाँ वही !

सुब्ह बेचैन है, दिन परेशान है
रात की हाय ये दिल्लगी ? हाँ वही !

फोन पर बात तो होती है खूब यूँ
तिश्नगी फोन से कब बुझी ? हाँ वही !

सैकड़ों ख़्वाहिशें सर पटकती हैं रोज़
देख कर जेब की मुफ़लिसी ? हाँ वही !

ज़िंदगी जैसे हो इक अधूरी ग़ज़ल
काफ़ियों में ही उलझी हुई ? हाँ वही !




(अभिनव प्रयास, जुलाई-सितम्बर 2012)