भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उफ ये घुटन और ये अँधेरा अजीब लगता है / मोहम्मद इरशाद
Kavita Kosh से
उफ ये घुटन और ये अंधेरा अजीब लगता है
शायद मेरा घर यहीं करीब लगता है
रोज़ बनता हूँ फिर यूँ ही मिट जाता हूँ मैं
अब तो अपना बस यही नसीब लगता है
सबका तू है पर यहाँ तेरा नही कोई
मेरी तरह तू कितना बदनसीब लगता है
तुझको चाहा है मैंने कुछ इस तरह ऐ दोस्त
मेरा साया ही मुझे अब रकीब लगता है
सब-कुछ तेरे पास है और सब पे इख़्तियार
शक्ल से तू फिर भी कितना गरीब लगता है