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उभयचर-15 / गीत चतुर्वेदी

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मैं यहां बुद्धू जैसे एक शब्द के बारे में सोचता हूं : मैं यानी गीत चतुर्वेदी नहीं : मैं यानी तुम यानी वह यानी वे यानी हम यानी सब कुछ यानी कुछ नहीं यानी निरपेक्षता यानी सापेक्षता यानी काल यानी अ-काल यानी समय के हिसाब से बदलता अर्थ यानी अर्थ के हिसाब से बदलता समय : यानी बुद्धू : यानी बुद्धिमान : यानी यह शब्द जब बना था, तो उस आदमी का सिंगार था, जिसने बुद्ध की परंपरा में खड़े हो बुद्ध के शतांश से भी कम यानी बहुत कम यानी कम से कम बुद्धि के सम पर इतना तो ज्ञान पा लिया था कि पास-पड़ोस की दुनिया में बुद्धिमान कहलाया था : यानी बुद्धू उपनाम पाया था : और यह कोई नई रिवायत नहीं कि : उपहासों का सबसे आसान शिकार मूर्खताएं नहीं, ज्ञान हुआ करता है : तो जो बुद्धू था, उसे पास-पड़ोस वालों का उपहास झेलना पड़ा : और चूंकि ज्ञान में पलटवार करने की क्षमता नहीं होती, वह पहला बुद्धू चुप ही रहा : और भी लोग जो बुद्धू हुए तो पास-पड़ोस वाले डरने लगे उनसे : कि सारी दुनिया ही बुद्धू हो गई तो उस पवित्र धार्मिक ईश्वरीय संतुलन का क्या होगा : सो एक साथ कहा सबने : चलो जी हटो, बुद्धू न बनाओ : और इस तरह सदियों तक अलग-अलग अंदाज़ में कहा गया यह संवाद : जिससे बिल्कुल उलटा हो गया इसका अर्थ : यानी निरा बुद्धू : यानी काल यानी अ-काल यानी ख़तरों की सुंदरता को नष्ट कर दो यानी सुंदरता के ख़तरों को नष्ट कर दो यानी सुंदरता को नष्ट करके ख़तरनाक बना दो यानी ख़तरनाक को ऐसा सुंदर बना दो कि बुद्धू होकर उनमें घुसा व्यक्ति बुद्धू बनकर बाहर आए