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उभयचर-5 / गीत चतुर्वेदी

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दुर्भाग्य के दिनों में सुंदरता की फि़क्र करना कला से ज़्यादा जिजीविषा है
हमारे जीवन में ज्ञान का सबसे बड़ा योगदान कि वह हमारे दुखों में अकल्पनीय इज़ाफ़ा करता है
मुझसे छीनी गई पहली चीज़ थी मेरा आध्यात्मिक विवेक उसके बाद छिनी चीज़ों की फ़ेहरिस्त ही न बना पाया
फिर ऐसा कुछ भी न बचा बची जिसकी मुझमें इच्छा हो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ करता था जिसकी मुझमें इच्छा न रही
इतने बरसों से मैं ठीक वैसा ही हूं अपने आप जैसा इसका कोई अफ़सोस न रहा
कितने दिनों से अंदाज़ा नहीं कि मेरी पिंडलियां शरीर के किसी काम भी आती हैं
मैं एक प्रतिध्वनि बना रहा जिसे अपने उत्स का भान नहीं दीवारों पहाड़ों घाटियों से टकराता और दोगुना होने के भरम में आधा होता जाता
आंख के भीतर पानी वैसे ही छटपटाता है जैसे कट गए बकरे के अंग
अत्याचार सहने में कोई तजुर्बा काम नहीं आता
मैं ऐसे बताता अपना नाम जैसे अर्थी के पीछे कोई मरने वाले का नाम बता रहा हो