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उमड़ा नेह / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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33
प्यास बुझाए
फिर भी कहीं नदी
चैन न पाए।
34
तट अधर
सात जन्मों के प्यासे
तृप्ति से दूर।
35
तुम हो नदी
अंकशायिनी बनो
आकुल मन।
36
तट -सी बाहें
जोहते रही तुम्हें
कहाँ हो नदी!
37
पापों का बोझ
ढोते हुए थकी है
विलीन हुई।
38
प्रतीक्षारत
नदी को पुकारते
तपते तरु।
39
शस्य श्यामला
अमृत पी हुई धरा
नदी ने बाँटा।
40
विषैली हुई
दुर्भावना जल से
मन की नदी।
41
हम न होंगे
न होंगे ये महल
नदी रहेगी।
42
खिलखिलाओ
नन्ही बालिका बन
घर में नदी।
43
प्रिये!सरिता
बहो मन प्राण में
सींचो जीवन।
44
टूटे किनारे
याद आई थी नदी
स्पर्श भी छूटा।
45
प्राण हैं सिक्त
बसी रोम- रोम में
तुम ज्यों नदी।
46
अर्पण करूँ
सब भाव तुझमें
ओ मुग्धा नदी!
47
ताप बहुत
कहीं दूर न जाओ
सँभालो मुझे।
48
गाती अथक
कल कल के गीत
सस्वर नदी।
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