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उमड़े अम्बर में प्रिय! आषाढ़ी घन बैठी रोती हूँ मैं / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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उमड़े अम्बर में प्रिय! आषाढ़ी घन बैठी रोती हूँ मैं।
आ मृदुल! तुम्हारे कर-बंधन के हेतु विकल होती हूँ मैं।
क्षण-क्षण प्रिय! तेरे पाणि स्पर्श की सिहरन जगी नवेली है।
गुदगुदा जा रही हमें अरूण गदरायी मृदुल हथेली है।
हे निष्ठुर! कैसे तेरी स्मृति अपने अन्तर से दूर करुँ ?
तुम झलक जा रहे जिस दर्पण में कैसे उसको चूर करुँ?
उड़कर पहुँचे कैसे तुम तक बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥105॥