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उमर ख़ालिद / प्रभात

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अगर नाम से ऐतराज़ है
जैसा कि है
और वे लगातार बदले जा रहे हैं
यहीं से आना शुरू हो जाती है
षड्यंत्र की बू
जिसमें चलना मुश्किल है एक भी क़दम
मगर जिसमें हम मज़े कर रहे हैं

अगर नाम से ऐतराज़ है
कोई भी नाम ले लो
उनमें से किसी का भी
जो निर्दोष हैं और जेल में हैं
हमारी जेलों का हाल कौन बताएगा हमें
कैसे जान पाएँगे हम वहाँ की सच्चाई
ऐसे में जब हमारी जानने में कोई रुचि भी नहीं
हमारी रुचियाँ दूसरी हैं जिनमें हम मज़े कर रहे हैं
क्या मालूम हम मज़े कर रहे हैं इसीलिए जेल में नहीं हैं

अगर नाम से ऐतराज़ है
वरवर राव रख लो
या
साईंबाबा
कौन उनकी जेल की यातनाओं को
याद रखना चाहेगा
शायद वे भी नहीं जो बचाने में लगे हैं स्मृति
निर्दोष क़ैदियों की स्मृति से क्या फ़ायदा होगा उनको
ज़रा भी फ़ायदा होता तो ज़रा तो याद रखा जाता
फिर ये ऐसी स्मृति साबित हो सकती है
जो आपके निर्दोष होने को अपराधी में बदल सकती है
सोचकर ही दहशत होती है

क्योंकि फिर तो आप यह भी सोचेंगे कि
निर्दोषों को जेल में रखना क्या अपराध नहीं है
क़ायदा क्या कहता है इस बारे में
तब फिर जेल में किसे होना चाहिए
पुलिस, क्लर्क, जज और उन्हें आदेश देने वालों को
उन सबको जेल में होना चाहिए या नहीं
क़ायदा क्या कहता है इस बारे में
मगर उनके चेहरे पर तो शिकन तक नहीं
कोई अहसास तक नहीं
जेल का कोई भय नहीं
वे तो मज़े कर रहे हैं
जैसे हम मज़े कर रहे हैं
 
कोई एक घण्टा भी बर्बाद करता है हमारा
तो हम कितना बेचैन हो जाते हैं
क्या-क्या उठा-पटक नहीं करते हैं
निर्दोष क़ैदियों का तो पूरा जीवन ही
उनके साइंस पढ़ने के दिन
उनके कविता लिखने के दिन
उनके प्रेम के दिन
घर की ज़िम्मेदारियाँ पूरी करने के दिन
अपनों में रह पाने के दिन
रोज़गार की मरीचिका में भटकने के दिन
सब कुछ

चलो सिरे से छोड़ते हैं इन बातों को
ऐसी बातें दिमाग़ में रहीं तो हम
मज़े कैसे कर पाएँगे