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उमर मेरी होगी जब बारह या तेरह की / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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उमर मेरी होगी जब बारह या तेरह की।
पुरानी नील कोठी की ऊपर की मंजिल में
 कमरा था, जिसमें मैं रहता था।
सामने थी खुली छत-
दिन और रात दोनों मिल
उजाले अँधेरे में जगा दिया करते थे
साथी हीन बालक की भावना और चिन्ता को
असम्बद्ध रूप में,
अर्थशून्य प्राण वे पाती थी,
जैसे नीचे सामने
बह रहे प्रकाश पा पेड़ झाड़ बेंत के
किनारे तालाब के।
झाऊ की पंक्ति खड़ी काँप रही झरझरझर।
नील की खेती के जमाने की पुरानी निशानी है।
वृद्ध इन वृक्षों के समान ही आदिम पुरातन
वयस के अतीत उस बालक का मन
निखिल आत्मा पाता था कम्पन,
आकाश की अनिमेष दृष्टि की बुलाहट पर
देता था उत्तर वह,
ताके ही रहता था दूर बहुत दूरी पर।

जाग्रत नही थी बुद्धि मेरी,
बुद्धि बाहर जो कुछ था
उसे बाधा नहीं मिली कहीं किसी द्वार पर।
स्वप्न जनता के विश्व में था द्रष्टा या स्रष्टा के रूप में,
पण्य हीन दिनों को बहा रहा था चुपचाप मैं
कदली पत्र की नाव के निरर्थक खेल में।
सवार हो टट्टू पर पहुंचता मैदान और
दौड़ाता रहता था देर तक घोड़े को,
मन में समझकर सेनापति अपने को,
पढ़ने की किताब देखा था चित्र एक
मन में थी वही बात, और कुछ नहीं था।
युद्धहीन रणक्षेत्र के इतिहास हीन मैदान में
ऐसे ही कटता था मेरा सवेरा तब।
जवा और गेंदा के फूलों का निचोड़ रस
मिश्रित उस रंग से न जाने क्या लिखता था,
उस लिखाई का यश-
अपने ही मर्म में हुआ है रंगीन तब
बाहर की वाहवाही बिना ही।
शाम को बुलाकर विश्वनाथ शिकारी को
सुनता था किस्से उससे विचित्र शेर शिकार के
निस्तब्ध छत पर वे लगते थे अद्भूत संवाद से।
म नही मन मैं भी बन्दूक को दबाना था घोड़ जब
थरथरथर काँप उठती छाती तब।
चारों ओर शाखायित सुनिविड़ प्रयोजन थे
उनमें बालक मैं और किउ़ वृक्ष सम
डोरदार ख्यालों के अद्भूत विकाश में
झूमता और झूलता ही रहता था कल्पना हिंडोले में।
मानो मैं रचयिता के हाथ में
पोथी के प्रथम कोरे पात में
अलकंरण अंकन में कहीं कहीं अस्पष्ट कोई लेख था,
बाकी सब रेखाओं को टेढ़ा सीधा भेख था।
आज जब शुरू हुआ पुराना हिसाब लेन देन का,
चारों और से क्षमाहीन भाग्य आ पहुंचा पुँह फाड़कर,
विधाता के लड़कपन के
खेल घर जितने थे सबको दिया तोड़फोड़।
आज याद आते हैं दिन वे रातें वे,
प्रशस्त वह छत भी,
उस प्रकाश अन्धकार में
कर्म समुद्र बीच निष्कर्म द्वीप के पार पर
बालक का मन मानों लगता था मघ्याहृ में घुग्घु की पुकार सा।
संसार में कहाँ क्या हो रहा, क्यों हो रहा,
भाग्य चक्रान्त से,
बालक ने कभी कुछ पूछा नहीं आज तक प्रश्रहीन विश्व में।
इस निखिल में जगत है लड़कपन विधाता का,
वयस्कों के दृष्टिकोण में हँसी है वह कौतुक की-
बालक को नहीं ज्ञात था।
उसका तो वहाँ बिछा आसन अबाध था।
वहीं उसका देव लोक, स्वकल्पित वहीं स्वर्गलोक,
नहीं जहाँ भर्त्सना, नहीं पहरा किसी प्रश्र का,
नहीं कहीं युक्ति संकेत काई पथ में,
इच्छा का ही संचरण है उसके लगाम मुक्त रथ में।