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उम्मीदों का जलने लगा गला / रविशंकर मिश्र

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मेहनत हुई पसीने से तर
किसका हुआ भला
चढ़ी दुपहरी उम्मीदों का
जलने लगा गला

हैण्डपंप हाँफे है, सब–
मर्सिबल पड़ा बीमार
इंतजाम कितने थे पर
सबके सब हैं बेकार
चिड़िया प्यासी, ढोर पियासे
प्यासा हर मसला

चटकी धूप कड़ाके की
जलता है सारा गाँव
ढूँढ़ रही है गर्मी रानी
शीतल–सुरभित छाँव
पेड़ काट बरगद का सबने
फिर फिर हाथ मला

मन झुलसा है, हुलसा भी है
आये हैं मेहमान
अगवानी में चाय–पान में
सारा घर ‘हलकान’
शुभ साइत थी, बिटिया का
गौना भी नहीं टला