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उम्मीदों के पाँव भारी हैं / मृदुला शुक्ला
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एक जहाँ हो हमारा
जहाँ तल्खियां मुस्कुरा कर गले मिले
रुसवाइयों को मिल जाए पंख शोहरतों के
तोली जाए खुशियाँ बेहिसाब
दूसरे पलड़े पर रखा जाए थोड़ा सा गम
सुबहें थोड़ी धुंधली सही
शामे पुररौशन हों
बूढी इमारतों के पास हो अपनी खुद की आवाज
जो भटके मुसाफिरों को रास्ते पर लायें
सुना कर कहानी अपनी बुलंदगी के दिनों की
जहाँ हमारी हाँ को हाँ
और ना को ना सुना जाए
वही समझा भी जाए
शायद मैं नींद में हूँ
मगर क्या करूँ ,मेरी उम्मीदों के पाँव भारी हैं
मेरे सपने पेट से हैं .