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उम्मीद-ओ-आरज़ू के दिये सब बुझा गया / जावेद क़मर
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उम्मीद-ओ-आरज़ू के दिये सब बुझा गया।
जब मेरा दोस्त दुश्मनी करने पे आ गया।
उस ने ही घर को कर दिया वीरान देखिए।
घर छोङ के मैं जिस के भरोसे पे था गया।
है ये सवाल क़ाफ़िले वालों के ज़ह्न में।
क्यों क़ाफ़िले को छोङ के रहबर चला गया।
आया पेश वाक़िआ ये भी कभी कभी।
घर का चराग़ घर के उजाले को खा गया।
ज़ालिम उरूज वाले तिरे दिन चले गए।
वक़्त-ए-ज़वाल अब तिरा नज़दीक आ गया।
भाता नहीं है दिल को मिरे अब कोई हसीं।
वो जब से अपना चाँद सा चेहरा दिया गया।
जो दर्द-ए-दिल का आया था करने 'क़मर' इलाज।
कुछ और दर्द दिल का हमारे बढ़ा गया।