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उम्मीद कुछ जगा के भरोसे के आदमी /वीरेन्द्र खरे अकेला
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उम्मीद कुछ जगा के भरोसे के आदमी
लौटे नहीं हैं जा के भरोसे के आदमी
ग़ैरों के लूटने का कभी दुख नहीं हुआ
चूना गए लगा के भरोसे के आदमी
सबको ख़बर है क़त्ल किया जा रहा हूँ मैं
बैठे हैं मुँह छुपा के भरोसे के आदमी
फुरसत कहाँ कि घाव पे मरहम रखे कोई
निबटे हैं दुख जता के भरोसे के आदमी
बरबादियों को मेरी तमाशा बनाए हैं
ख़ुश हैं मुझे चिढ़ा के भरोसे के आदमी
जो जंग तू कहेगा, बता दूँगा जीत कर
दो-चार दे दे ला के भरोसे के आदमी
दुख झेलने के वक्त ‘अकेला’ रहेगा तू
सुख में मिलेंगे आ के भरोसे के आदमी