उम्मीद बाक़ी है / मंजुला बिष्ट
होश सम्भालते ही
धरा के हर हिस्से के बाबत
मुझे यही ताक़ीद किया गया कि
"हर रोज़ सूरज के डूबने का अर्थ,घर लौट आना है
उसके बाद किसी पर-पुरूष का कोई भरोसा ही नहीं है!"
अब आप समझ सकते हैं कि
मेरी ज़ात
दुनिया पर भरोसा करते रहने के लिए
सूरज के उगने का कितना इंतजार करती है!
और क्या आप यह भी समझ सकते हैं कि
हमारे लिए अँधेरें के बाद
किसी पर-पुरुष के लिए जमा भरोसा
कितनी दुर्लभ घटना है!
लेक़िन
अगर मैं यह मान लूँ कि
मेरी ज़ात सिर्फ और सिर्फ अँधेरें से डरती है
तो उन तमाम अव्यक्त थरथराहटों का क्या?
जो उनके भीतर
उजाले को देखकर भी पैदा होती हैं
जब वे
घर के किवाड़-परदों के पीछे छिपकर
अपने हिस्से के अँधेरें को रोज़ गाढ़ा करती हैं
लेक़िन कभी
देहरी पर बैठ सुबकने का साहस नहीं करती
अँधेरे-उजाले में अपने भय को रोज़
बढ़ाती-घटाती मेरी हमजातों
की कमर कसते रहने की इस मुसलसल ज़िद को
आप भले ही ऐतिहासिक पल का दर्जा देंने लगें हों
लेक़िन
मैं अभी भी इसे इतिहास पुकारने का पाप नहीं करना चाहती हूँ!