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उम्मीद / शरद कोकास

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खेत की मिट्टी से
दूसरों के लिये फसल
अपने लिये दो जून की रोटी
कमाने के बाद
सपनों के लिये बचाकर रखा पैसा
शहर में पढ़ रहे भाई को
भेजते हुए वह सोचती है
भाई पढ़ रहा है
बढ़ रहा है उसका क़द
 
बढ़ते बढ़ते वह एक दिन
बाप के न रहने से उपजे
शून्य को भरते हुए
उठा लेगा कन्धे पर
घर की तमाम ज़िम्मेदारियाँ
नौकरी से लौटते हुए
छुट्टियों में
लेकर आयेगा उसके लिए
रंग-बिरंगी चूड़ियाँ
साड़ी और माथे की बिन्दी
बातें करेगा गुदगुदाने वाली
उसके ब्याह और सगाई की
 
वह शरमाएगी।