उम्र का सूनापन / महेश सन्तोषी
तुम कहाँ खोज रहे हो, किसी का साथ,
किसी से सम्वाद, किसी का अपमान,
तुमने स्वयं ही अर्जित किया है,
यह उम्र की साँझ का सूनापन!
तुम्हें बहुत याद आती हैं बीती ज़िन्दगी की आसक्तियाँ, तृप्तियाँ
कुछ गोरे, छरहरे बदन, कुछ ओस से ज़्यादा उज्ज्वल छवियाँ,
पर हमेशा चाँदनी नहीं ओढ़े रहता किसी का भी समय,
बिखर ही जाती हैं, हथेलियों पर रची सब रुपहली रंगोलियाँ,
जिन दर्पणों के आगे तुम अनवृत्त खड़े थे
उनमें छुपी आभाओं में कब तक बँटा,
भटकता रहेगा तुम्हारा आधा मृत मन?
तुमने स्वयं ही अर्जित किया है,
यह उम्र की साँझ का सूनापन।
शीशों में छाया ही जड़ी जाती है, परछाइयाँ नहीं,
जो परछाइयों को पकड़ सकें, वह उँगलियाँ अभी बनी ही नहीं,
तुम क्यों बाँहों में समेटे, सहेजे हुए हो कुछ भोगे हुए सत्य?
बुझी माँसलताओं से भी मिलती हैं, तप्त उष्मताएँ कहीं?
अतीत से बँधकर नही बैठा रहता
हर दिन अतीत के आगे ही रहता है,
हर जीवित जीवन दर्शन,
तुमने स्वयं ही अर्जित किया है,
यह उम्र की साँझ का सूनापन!