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उम्र की दूर दिशा से / राम दरश मिश्र

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आज उम्र की दूर दिशा से
सावन की वातास आ रही
जिन-जिन फूलों से गुज़रा
उन-उन फूलों की वास आ रही!

निकला था मैं सालों पहले
घर से गठरी लिए सफ़र की
कुछ अरूप सपने भविष्य के
कुछ गाढ़ी यादें थीं घर की

आज न जाने कहाँ-कहाँ की दूरी
मेरे पास आ रही!

बहते हुए शहर के पथ पर
आँखें सहसा अट जाती थीं
धूल-भरी आकृतियाँ कुछ
गाँव की दिखाई पड़ जाती थीं

उमड़-उमड़ अब भी अंतरतम में
बचपन की प्यास आ रही!

चलता गया, राह में आए
कितने नए-नए चौराहे
पाता गया न जाने कितना
कुछ नूतन चाहे-अनचाहे

यादों में कुछ पेड़ पिता-से,
भीगी माँ-सी घास आ रही!

साथ समय के चलते-चलते
कितना दूर निकल आया मैं
फिर भी रह-रहकर लगता
ओ गाँव, तुम्हारा ही साया मैं

मेरी इन शहरी साँसों में
उन खेतों की साँस आ रही!