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उम्र के जिस पड़ाव पर / महेश सन्तोषी

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उम्र के जिस पड़ाव पर हम, एक दूसरे से मिले थे।
वहाँ सिर्फ हमारी देहें ही देहों से मिली थीं,
इसके आगे कोई और क्षितिज नहीं थे।

बड़े मांसल थे हमारे वे सम्बन्ध,
बहुत भली लगती थी एक दूसरे की देह की गंध।
कितनी तपती हुई थीं, उम्र की वे दोपहरियाँ,
वे पसीजते हुए तन, वे पसीने की बिंदियाँ।
तब न रात ढलती थी, न दिन उगता था
क्या खूब थे वे दिन! वह वक़्त क्या खूब था!
देखने को कोई सपने बाकी नहीं बचे थे,
सारे सपने सच होकर सामने खड़े थे।
उम्र के जिस पड़ाव पर हम, एक दूसरे से मिले थे...

अलग-अलग चलती रही हमारी ज़िन्दगियाँ
सिन्दूर से बंधी रहीं, सांसों की परछाईयाँ।
वर्षों हम एक-दूसरे से मिले भी नहीं,
यादें ढोने के कोई खास सिलसिले भी नहीं
पर हम भूले भी नहीं उम्र के जिये वे हिस्से
वे भोगे हुए सत्य, जो रह गये, अब सपने से।
हमने समझौते कर ही लिए सच्चाईयों से।
ज़िन्दगियाँ नहीं चलतीं, प्राणहीन परछाइयों से।
उम्र के जिस पड़ाव पर हम, एक दूसरे से मिले थे...