उम्र बीस साल / शहनाज़ इमरानी
दिन के उजाले में लोग
उस जिस्म को मिट्टी बनने के लिए
छोड़ आए हैं क़ब्र में
उन कहानियों की तरह
जो राजकुमारी को जंगल में
अकेला छोड़ आती थीं
वो सब तो झूठी कहानियाँ थीं
सच तो तुम्हारे साथ दफ़्न हो गया
उम्र बीस साल और ख़त्म ज़िन्दगी
त्याग, बलिदान और दुखों की
लम्बी फेहरिस्त के साथ
जिसे तुमने घूँट-घूँट उतारा
तुम्हारा परिचय भी हुआ होगा
हिंसा, उत्पीड़न ,यातना, अपमान शब्दों से
मौलवियों और उलेमाओं की इस दुनिया में
रोने पर पाबन्दी है और ज़ोर से हँसना मना है
तब लीग करने वाले सिर्फ फ़र्ज़ बताते है
और हक़ सिर्फ़ किताबों में लिखे जाते है
लौट रहे हैं पुरानी सभ्यता की ओर
खोदी जा रही हैं क़ब्रें लगातार
घर-बाहर, मुर्दाघरों में हर जगह हैं लाशें
चूड़ियों का बोझ ज़्यादा और कलाईयाँ पतली
कहते है क़ुदरत कि सबसे नाज़ुक संरचना हैं स्त्री
अनगिनत ज़ख्म है तुम्हारे जिस्म पर
कितनी बेहरहमी हुई है तुम्हारे साथ
तुम ने ज़िन्दगी की जंग आसानी से नहीं हारी थी
टूटी हुई उँगलियाँ इस की गवाह हैं
आँसुओं से भीगी ताज़ा लहू में डूबी कविता
लिखती हूँ काट देती हूँ फिर लिखती हूँ