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उर्दू सीखते हुए / आग़ा शाहिद अली / अशोक कुमार पाण्डेय

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जम्मू के पास के एक ज़िले से आया था वह
(उसकी उर्दू मे डोगरी लड़खड़ा रही थी)
उन्नीस सौ सैंतालीस में एक महाद्वीप के
दो हिस्सों मे टूटने का शिकार
उसने बताया टुकड़ों मे बँटी हवा खाने के बारे मे
जबकि लोग लहू के अलफ़ाज़ में, मृत्यु के अक्षरों मे
नफ़रत मे डूबे हुए थे ।

'मुझे केवल वह आधा लफ़्ज़ याद है
जो मेरा गाँव था I बाक़ी मैं भूल चुका हूँ ।
मेरी स्मृति रक्त रेखा की है
जिसके पार मेरे दोस्त किसी मृत शायर के
तिक्त अश’आर मे डूब गए ।’

वह चाहता था मुझसे सहानुभूति हो । मैं नहीं कर पाया महसूस।
मेरी केवल उन तिक्त अश’आर मे रुचि थी
जिन्हें मैं उसे समझाना चाहता था ।

वह कहता गया,
'और मैं जो जानता था मीर को, दीवान ए ग़ालिब के हर शेर ने
शायरी को लहू के अल्फ़ाज़ मे डूबता हुआ देखा ।’

उसे अब कुछ भी याद नहीं, जबकि मैं पाता हूँ
ग़ालिब को भाषाओं के चौराहे पर किसी भी ओर बढ़ने से इनकार करते
मेरे दया के थियेटर को देखने के लिए
भिखारी होने का ढोंग करते ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : अशोक कुमार पाण्डेय