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उर्ध्वगमन / जगदीश जोशी / क्रान्ति कनाटे

ये मकान न हिले सूतभर
फिर भी
देखते-देखते गलियाँ
कैसी हो गई सँकरी !

समुद्र में पाँव फैलाकर
यह धरा बढ़ती चली गई
और एश्वर्य पाने को
ऊँचे और ऊँचे और ऊँचे
मकानों की मँज़िलें
आदमी बनाता चला गया
और तब भी कहो क्यों रहा ईश्वर इतनी दूर !

ये मकान न हिले सूतभर
फिर भी ...।

मूल गुजराती से अनुवाद : क्रान्ति कनाटे