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उर्मि सुहाती रही मुझे / प्रेमलता त्रिपाठी

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सागर विशाल उर्मि सुहाती रही मुझे ।
लहरें उछाल संग रिझाती रही मुझे ।

करती रही विभोर सलोनी सुबह सदा,
पावस सरस बयार जगाती रही मुझे ।

है अस्त या उदीय धरा संग हो गगन,
रवि लालिमा सुहास लुभाती रही मुझे ।

संघर्ष में विवेक हताशा मिटा हृदय,
राहें वहीं अनेक बुलाती रही मुझे ।

लालच बुरी बलाय तृषा जो मिटे नहीं,
परिणाम वह सदैव दिखाती रही मुझे।

यदि लक्ष्य हो विकास नियामक सही मिले,
होगा सफल समाज सिखाती रही मुझे

जीवंत हो सप्रेम लुटाकर मिले खुशी,
कटुता करे विनाश बताती रही मुझे ।