भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उलझन / श्रीनाथ सिंह
Kavita Kosh से
कोई मुझको बेटा कहता,
कोई कहता बच्चा।
कोई मुझको मुन्नू कहता,
कोई कहता चच्चा।
कोई कहता लकड़ा ! मकड़ा!
कोई कहता लौआ।
कोई मुझको चूम प्यार से,
कहता मेरे लौआ।
कल आकर इक औरत बोली,
तू है मेरा गहना।
रोटी अगर समझती वह तो,
मुश्किल होता रहना।
सब सहता हूँ पर बढ़ता है,
दुःख अन्दर ही अन्दर।
गालों पर जब चूम चूम,
माँ कहती - मेरे बन्दर।