भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उलझे मिले- / ज्योत्स्ना शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

81
देखे, सँजोए
तार-तार सपने
बेचैन घर।
82
रिसते जख्म
पर्त-पर्त उघड़े
सिसका घर।
83
महका घर
आने की आहट से,
तेरे इधर!
84
बैरन वर्षा
ले गई सारे रंग
बेरंग घर।
85
थके नयन
जोहे बाट किसकी
ये खण्डहर।
86
होने न दूँगी
नीलाम, सपनों का-
ये प्यारा घर!
87
रस्मों के गाँव
उलझ गए मेरे
भावों के पाँव।
88
उलझे मिले-
लालच की चादर
रिश्तों के तार।
89
किरन सखी
खोले है उलझन
नन्ही कली की।
90
प्रेम की डोर
उलझा मन, जाए-
तेरी ही ओर!