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उलझो तो बस उलझें रहो तमाम ज़िंदगी / डी. एम. मिश्र

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उलझो तो बस उलझें रहो तमाम ज़िंदगी
आराम से रहो तो है आराम जिंदगी।

मुश्किल से है मिली इसे रक्खो सँभाल के
अल्लाह ने दिया तुझे ईनाम जिंदगी।

इन्सानियत से बढ़के धर्म दूसरा नहीं
न सिक्ख, न हिन्दू, न है इस्लाम जिंदगी।

खुशियों से उस ग़रीब का दामन नहीं भरा
आँसू बहा रही है सरेशाम जिंदगी।

ताउम्र मेरे पास वो बैठा रहा मगर
उसको तलाशता रहा तमाम जिंदगी।