भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उलटबांसी / नीरज दइया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम सोती हो
घोड़े बेचकर
उन्हीं घोड़ों को लेकर मैं
निकलता हूं-
ढूंढऩे तुम्हें।
नींद में
फैली है कितनी जमीन
जब ढूढ़ते-ढूढ़ते हार जाता हूं,
उचट जाती है ।
मैं जाग कर सबसे पहले
घोड़ों को पिलाता हूं पानी!