भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उलटवासी / निरुपमा सिन्हा
Kavita Kosh से
मैंने देखा है
उन स्त्रियों को
जो बेचती है
सिन्दूर चूड़ी
और बिंदी के
रंगीन पत्ते
पति विहीन होते हुए भी
उन्हीं के आस पास
टहलती ऐसी
औरतों को भी
जो कर नही पाती
रंगों से प्रेम
ओढ़ नही पाती प्यास
और
सफेद कपड़ों की व्यवसायी हैं
उलटवासी प्रथा की
प्रवर्तकों से कटी
वो
महिला समुदाय
आँचल का कोना दबा
रोज़ देखता है
नियति के बदल जाने का
स्वप्न
हाथ पर धरे हाथ!!