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उलाहन शेष हैं / अवनीश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
फिर समय
की रेत सारी
दलदलों को बाँटकर,
मूल्य भी
लाचार लेटा
है नदी के घाट पर।।
दिन बँटे
सूरज बिलखता
धूप के टुकड़े तिकोने,
रेत की
जलती धरा पर
नागफनियों के बिछौने।
तप्त मरुथल
आँधियों से
उठ रहे कितने बगूले,
ताप के
संताप से है
चल रहा कोई समर।।
सिलसिलों
के पास केवल
कुछ उलाहन शेष हैं,
रूप बदला
है समय ने
खण्डहर अवशेष हैं,
चौखटों पर
ठोकरों के
साथ सिसियाती हवा,
प्रेत मौसम
का हमेशा
तोड़ देता है कमर।।
लोग जाकर
लौट आये
फिर उसी दहलीज पर,
खुरदुराहट
की कहानी
कह रही जो खीझकर,
फिर नया
अध्याय
बेबस हो उठा,
अर्थियों के
मर्म वाले
तथ्य के सोपान पर।